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किसानों की आय दोगुनी

सही लागत-उत्पादन अनुपात को समझ सब्ज़ी उगाकर कैसे कमाएँ अच्छा मुनाफ़ा, जानें बचत करने की पूरी प्रक्रिया

सही लागत-उत्पादन अनुपात को समझ सब्ज़ी उगाकर कैसे कमाएँ अच्छा मुनाफ़ा, जानें बचत करने की पूरी प्रक्रिया

सही लागत-उत्पादन अनुपात के अनुसार सब्ज़ी की खेती

भारत शुरुआत से ही एक कृषि प्रधान देश माना जाता है और यहां पर रहने वाली अधिकतर जनसंख्या का कृषि ही एक प्राथमिक आय का स्रोत है। पिछले कुछ सालों से बढ़ती जनसंख्या की वजह से बाजार में कृषि उत्पादों की बढ़ी हुई मांग, अब किसानों को जमीन पर अधिक दबाव डालने के लिए मजबूर कर रही है। इसी वजह से कृषि की उपज कम हो रही है, जिसे और बढ़ाने के लिए किसान लागत में बढ़ोतरी कर रहें है। यह पूरी पूरी चक्रीय प्रक्रिया आने वाले समय में किसानों के लिए और अधिक आर्थिक दबाव उपलब्ध करवा सकती है। भारत सरकार के किसानों की आय दोगुनी करने के लक्ष्य पर अब कृषि उत्पादों में नए वैज्ञानिक अनुसंधान और तकनीकों की मदद से लागत को कम करने का प्रयास किया जा रहा है। धान की तुलना में सब्जी की फसल में, प्रति इकाई क्षेत्र से किसानों को अधिक मुनाफा प्राप्त हो सकता है। वर्तमान समय में प्रचलित सब्जियों की विभिन्न फसल की अवधि के अनुसार, अलग-अलग किस्मों को अपनाकर आय में वृद्धि की जा सकती है। मटर की कुछ प्रचलित किस्म जैसा की काशी उदय और काशी नंदिनी भी किसानों की आय को बढ़ाने में सक्षम साबित हो रही है। सब्जियों के उत्पादन का एक और फायदा यह है कि इनमें धान और दलहनी फसलों की तुलना में खरपतवार और कीट जैसी समस्याएं कम देखने को मिलती है। सब्जियों की नर्सरी को बहुत ही आसानी से लगाया जा सकता है और जलवायुवीय परिवर्तनों के बावजूद अच्छा उत्पादन किया जा सकता है।


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भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (ICAR) के अनुसार भारत की जमीन में उगने वाली सब्जियों को दो वर्गों में बांटा जा सकता है, जिनमें धीमी वृद्धि वाली सब्जी की फसल और तेज वृद्धि वाली सब्जियों को शामिल किया जाता है। धीमी वृद्धि वाली फसल जैसे कि बैंगन और मिर्च बेहतर खरपतवार नियंत्रण के बाद अच्छा उत्पादन दे सकती है, वहीं तेजी से बढ़ने वाली सब्जी जैसे भिंडी और गोभी वर्ग की सब्जियां बहुत ही कम समय में बेहतर उत्पादन के साथ ही अच्छा मुनाफा प्रदान कर सकती है।

कैसे करें खरपतवार का बेहतर नियंत्रण ?

सभी प्रकार की सब्जियों में खरपतवार नियंत्रण एक मुख्य समस्या के रूप में देखने को मिलता है। अलग-अलग सब्जियों की बुवाई के 20 से 50 दिनों के मध्य खरपतवार का नियंत्रण करना अनिवार्य होता है। इसके लिए पलवार लगाकर और कुछ खरपतवार-नासी रासायनिक पदार्थों का छिड़काव कर समय-समय पर निराई गुड़ाई कर नियंत्रण किया जाना संभव है। जैविक खाद का इस्तेमाल, उत्पादन में होने वाली लागत को कम करने के अलावा फसल की वृद्धि दर को भी तेज कर देता है।

कैसे करें बेहतर किस्मों का चुनाव ?

किसी भी सब्जी के लिए बेहतर किस्म के बीज का चुनाव करने के दौरान किसान भाइयों को ध्यान रखना चाहिए कि बीज पूरी तरीके से उपचारित किया हुआ हो या फिर अपने खेत में बोने से पहले बेहतर बीज उपचार करके ही इस्तेमाल करें। इसके अलावा किस्म का विपणन अच्छे मूल्य पर किया जाना चाहिए, वर्तमान में कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय बीज निर्माता कंपनियां अपने द्वारा तैयार किए गए बीज की संपूर्ण जानकारी पैकेट पर उपलब्ध करवाती है। उस पैकेट को पढ़कर भी किसान भाई पता लगा सकते हैं कि यह बीज कौन से रोगों के प्रति सहनशील है और इसके बीज उपचार के दौरान कौन सी प्रक्रिया का पालन किया गया है। इसके अलावा बाजार में बिकने वाले बीज के साथ ही प्रति हेक्टेयर क्षेत्र में होने वाले अनुमानित उत्पादकता की जानकारी भी दी जाती है, इस जानकारी से किसान भाई अपने खेत से होने वाली उत्पादकता का पूर्व अंदाजा लगा सकते हैं। ऐसे ही कुछ बेहतर बीजों की किस्मों में लोबिया सब्जी की किस्में काशी चंदन को शामिल किया जाता है, मटर की किस्म काशी नंदिनी और उदय के अलावा भिंडी की किस्म का काशी चमन कम समय में ही अधिक उत्पादकता उपलब्ध करवाती है।

कैसे निर्धारित करें बीज की बुवाई या नर्सरी में तैयार पौध रोपण का सही समय ?

किसान भाइयों को सब्जी उत्पादन में आने वाली लागत को कम करने के लिए बीज की बुवाई का सही समय चुनना अनिवार्य हो जाता है। समय पर बीज की बुवाई करने से कई प्रकार के रोग और कीटों से होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है और फसल की वर्द्धि भी सही तरीके से हो जाती है, जिससे जमीन में उपलब्ध पोषक तत्वों का इस्तेमाल फसल के द्वारा ही कर लिया जाता है और खरपतवार का नियंत्रण आसानी से हो जाता है। कृषि वैज्ञानिकों की राय में मटर की बुवाई नवंबर के शुरुआती सप्ताह में की जानी चाहिए, मिर्च और बैंगन जुलाई के पहले सप्ताह में और टमाटर सितंबर के पहले सप्ताह में बोये जाने चाहिए।

कैसे करें बीज का बेहतर उपचार ?

खेत में अंतिम जुताई से पहले बीज का बेहतर उपचार करना अनिवार्य है, वर्तमान में कई प्रकार के रासायनिक पदार्थ जैसे कि थायो-मेथोक्जम ड्रेसिंग पाउडर से बीज का उपचार करने पर उसमें कीटों का प्रभाव कम होता है और अगले 1 से 2 महीने तक बीज को सुरक्षित रखा जा सकता है।


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कैसे करें सब्जी उत्पादन में आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल ?

वर्तमान में कई वैज्ञानिक अध्ययनों से नई प्रकार की तकनीक सामने आई है, जो कि निम्न प्रकार है :-
  • ट्रैप फसलों (Trap crop) का इस्तेमाल करना :

इन फसलों को 'प्रपंच फसलों' के नाम से भी जाना जाता है।

मुख्यतः इनका इस्तेमाल सब्जी की फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों से बचाने के लिए किया जाता है।

पिछले 10 वर्षों से कृषि क्षेत्र में सक्रिय कृषि वैज्ञानिक 'नीरज सिंह' के अनुसार यदि कोई किसान गोभी की सब्जी उगाना चाहता है, तो गोभी की 25 से 30 पंक्तियों के बाद, अगली दो से तीन पंक्तियों में सरसों का रोपण कर देना चाहिए, जिससे उस समय गोभी की फसल को नुकसान पहुंचाने वाले डायमंडबैक मॉथ और माहूँ जैसे कीट सरसों पर आकर्षित हो जाते हैं, इससे गोभी की फसल को इन कीटों के आक्रमण से बचाया जा सकता है।

इसके अलावा टमाटर की फसल के दौरान गेंदे की फसल का इस्तेमाल भी ट्रैप फसल के रूप में किया जा सकता है।

  • फेरोमोन ट्रैप (pheromone trap) का इस्तेमाल :

इसका इस्तेमाल मुख्यतः सब्जियों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को पकड़ने में किया जाता है।

गोभी और कद्दू की फसलों में लगने वाला कीट 'फल मक्खी' को फेरोमोन ट्रैप की मदद से आसानी से पकड़ा जा सकता है।

इसके अलावा फल छेदक और कई प्रकार के कैटरपिलर के लार्वा को पकड़ने में भी इस तकनीक का इस्तेमाल किया जा सकता है।



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हाल ही में बेंगुलुरू की कृषि क्षेत्र से जुड़ी एक स्टार्टअप कम्पनी के द्वारा तैयार की गई चिपकने वाली स्टिकी ट्रैप (या insect glue trap) को भी बाजार में बेचा जा रहा है, जो आने वाले समय में किसानों के लिए उपयोगी साबित हो सकती है। आशा करते हैं Merikheti.com के द्वारा उपलब्ध करवाई गई यह जानकारी बदलते वक्त के साथ बढ़ती महंगाई और खाद्य उत्पादों की मांग की आपूर्ति सुनिश्चित करने में किसान भाइयों की मदद करने के अलावा उन्हें मुनाफे की राह पर भी ले जाने में भी सहायक होगी।
इस राज्य के पशुपालकों को मिलेगा भूसे पर 50 फीसदी सब्सिडी, पशु आहार पर भी मिलेगा अब ज्यादा अनुदान

इस राज्य के पशुपालकों को मिलेगा भूसे पर 50 फीसदी सब्सिडी, पशु आहार पर भी मिलेगा अब ज्यादा अनुदान

उत्तराखंड सरकार अपने राज्य के किसानों का ख्याल रखने में कोई कसर नही छोड़ रही है। राज्य सरकार का प्रयास है, कि राज्य में होने वाली खेती को फायदे का सौदा बनाया जाए तथा जल्द से जल्द किसानों की आय दोगुनी की जाए, ताकि उत्तराखंड के गावों से किसानों और लोगों का पलायन रोका जा सके। इसी कड़ी में उत्तराखंड सरकार नित नई घोषणाएं करती रहती हैं, ताकि किसान अपने आपको इस पर्वतीय राज्य में मजबूती के साथ खड़ा रख पाए। अभी हाल ही में उत्तराखंड सरकार ने पशुपालकों को राहत देते हुए घोषणा की है, कि सरकार की ओर से भूसे की खरीद पर 50 प्रतिशत की सब्सिडी दी जाएगी। सरकार ने यह निर्णय भूसे के बढ़ते हुए दामों को लेकर लिया है। वर्तमान में राज्य में भूसे का दाम 1600 रुपये प्रति क्विंटल है। जिस पर सरकार 800 रुपये प्रति क्विंटल की सब्सिडी देने जा रही है। इस हिसाब से अब राज्य के किसानों और पशुपालकों को 1 क्विंटल भूसे की खरीद पर मात्र 800 रुपये ही चुकाने होंगे। [embed]https://www.youtube.com/watch?v=wdZnodFWSB8&t=17s[/embed] इसके साथ ही सरकार ने पशु आहार पर मिलने वाले अनुदान में भी बढ़ोत्तरी की है। जहां पहले पशु आहार पर 2 रुपये प्रति किलो की सब्सिडी दी जाती थी। उसे बढ़ाकर सरकार ने राज्य के मैदानी क्षेत्रों के लिए 4 रुपये प्रति किलो कर दिया गया है। इसी के साथ अब राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों में पशु आहार पर मिलने वाली सब्सिडी को बढ़ाकर 6 रुपये प्रति किलो कर दिया गया है।


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सरकारी अधिकारियों ने नोटिफिकेशन के माध्यम से बताया है, कि सहकारिता विभाग की तरह ही अब दुग्ध विकास विभाग के माध्यम से भी पशुपालकों को साइलेज पर 75 फीसद की सब्सिडी प्रदान की जाएगी। अगर सरकारी आंकड़ों की बात करें तो प्रदेश में 8 लाख से ज्यादा पशुपालक हैं। जो सीधे तौर पर पशुपालन के व्यवसाय से जुड़े हुए हैं। इनमें से लगभग 52 हजार दुग्ध उत्पादक सहकारी समितियों से जुड़े हुए हैं। इन सभी की पहचान करके भूसे पर तथा पशु आहार पर सब्सिडी प्रदान की जाएगी। इस योजना को कैबिनेट की तरफ से मंजूरी मिल गई है। राज्य सरकार का अनुमान है, कि सरकार के इन फैसलों से राज्य के किसानों और दुग्ध उत्पादकों को फायदा होगा। जिससे उनकी आमदनी में भी बढ़ोत्तरी हो सकेगी। जो राज्य में पशुपालन को बड़े स्तर पर बढ़ाने में सहायक होगा। अगर किसानों की खेती और पशुपालन के माध्यम से आमदनी बढ़ती है, तो यह राज्य में लगातार हो रहे पलायन को रोकने में मददगार साबित हो सकता है।
प्लायमाउथ रॉक मुर्गी करेगी मालामाल, बस करना होगा ये काम

प्लायमाउथ रॉक मुर्गी करेगी मालामाल, बस करना होगा ये काम

प्लायमाउथ रॉक मुर्गी से मालामाल भला कोई कैसे हो सकता है, इस बारे में आप भी जरूर सोच रहे होंगे. लेकिन यह सच हो सकता है. जी हां अगर आप किसान हैं, और मुर्गी पालन का काम करते हैं, तो यह खबर आपके काफी काम आने वाली है. दरअसल किसान अपनी खेती के साथ पोल्ट्री फार्म का काम बखूबी कर रहे हैं. इस काम से उन्हें मोटी कमाई भी हो रही है. हालांकि ना सिर्फ किसान बल्कि अन्य लोग भी चिकन और अंडे का बिजनेस कर रहे हैं. जो उनेक परिवार के आय का स्रोत भी है. इस बिजनेस में ज्यादा इन्वेस्ट करने की जरूरत नहीं होती. यही इस बिजनेस की सबसे खास बात है. इस बिजनेस को शुरू करने के लिए सरकार भी किसानों को सब्सिडी की देती है. अब अगर आप भी अपनी आमदनी को दोगुना करना चाहते हैं, और मालामाल होना चाहते हैं, तो पोल्ट्री फार्म को शुरू करने से पहले इस खास नस्ल की मुर्गी के बारे में जान लें.

प्लायमाउथ रॉक मुर्गी

किसान अगर अपने पोल्ट्री फार्म में प्लायमाउथ रॉक नस्ल की मुर्गी पालने लग जाएं, तो वो कम ही समय में ज्यादा मुनाफा कमा सकते हैं. देसी मुर्गियों के मुकाबले प्लायमाउथ रॉक मुर्गी ज्यादा तंदरुस्त होती है, और बीमार भी कम पड़ती है. इसके अलावा यह मुर्गी अंडे भी ज्यादा देती है. अब ऐसे में किसान इसका चिकन और अंडे दोनों बेचकर ज्यादा कमाई करने में सक्षम हो सकते हैं.

मार्केट में ज्यादा डिमांड

प्लायमाउथ रॉक एक अमेरिकी नस्ल की मुर्गी होती है. लेकिन मार्केट में इसकी ज्यादा डिमांड की वजह से यह अब भारत में पाली जाने लगी है. जिस वजह से इसके चिकन के रेट भी मार्केट में ज्यादा हैं. रॉक बर्रेड रॉक के नाम से भारत में जानी जाने वाली यह मुर्गी हेल्थ के लिए काफी अच्छी होती है. इसका मीट भी हेल्थ के लिए काफी अच्छा होता है. इन्हीं खूबियों की वजह से प्लायमाउथ रॉक मुर्गी की डिमांड भारत में बढ़ रही है. ये भी देखें: कड़कनाथ पालें, लाखों में खेलें

ठंड में चाहिए देखभाल

प्लायमाउथ रॉक मुर्गी का शरीर देसी मुर्गी के शरीर के मुकाबले काफी बड़ा होता है. इसका वजन आमतौर पर 3-4kg तक होता है. गहरे भूरे रंग के अंडे देने वाली प्लायमाउथ रॉक मुर्गी हर साल 200-250 तक अंडे दे सकती है. इस मुर्गी के रंगों की बात करें तो यह बफ, वाइट, ब्लू सहित कई रंगों में आती है. इसका स्वभाव काफी शांत और मिलनसार है. प्लायमाउथ रॉक हमेशा घास में रहना पसंद करती है. बीस हफ्ते की उम्र में ही अंडे देने की क्षमता रखने वाली प्लायमाउथ रॉक मुर्गी हर हफ्ते चार से पांच अंडे दे सकती है. वैसे तो यह मुर्गी हर तरह के जलवायु में रह लेती है, लेकिन सर्दियों में इसे थोड़ी बहुत देखभाल की जरूरत होती है.
भारत सरकार शून्य बजट प्राकृतिक खेती के लिए क्यों और किस तरह से बढ़ावा दे रही है

भारत सरकार शून्य बजट प्राकृतिक खेती के लिए क्यों और किस तरह से बढ़ावा दे रही है

भारत के अंदर शून्य बजट प्राकृतिक खेती (जेडबीएनएफ) टिकाऊ एवं फायदेमंद दोनों होने की क्षमता रखती है। हालांकि, बहुत सारे कारक इसकी सफलता और लाभप्रदता को प्रभावित करते हैं। लागत-मुनाफा अनुपात के मुताबिक, यह दीर्घकाल में तभी फायदेमंद हो सकता है। जब एक स्थापित मूल्य श्रृंखला के साथ बड़े स्तर पर किया जाए और लघु स्तरीय किसानों के लिए इससे उबरना कठिन साबित होगा।

ZBNF के तहत स्थिरता

ZBNF जैविक कृषि पद्धतियों, मृदा संरक्षण एवं जल प्रबंधन पर विशेष ध्यान केंद्रित करता है, जो दीर्घकालिक स्थिरता में सहयोग प्रदान करता है। रासायनिक आदानों को खत्म करके, ZBNF मृदा के स्वास्थ्य, जैव विविधता एवं पारिस्थितिक संतुलन को प्रोत्साहन देता है। यह बाहरी इनपुट पर निर्भरता को कम करता है, प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करता है एवं कृषि प्रणाली में भी काफी सुधार करता है।

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ZBNF के अंतर्गत लागत में बचत

ZBNF के मुख्य सिद्धांतों में से एक बाहरी इनपुट को समाप्त करना और लागत को कम करना है। स्थानीय तौर पर उपलब्ध संसाधनों का इस्तेमाल करके और प्राकृतिक कृषि तकनीकों को अपनाकर, किसान रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों एवं बीजों के खर्च को कम अथवा समाप्त कर सकते हैं। इससे वक्त के साथ महत्वपूर्ण लागत बचत हो सकती है, जिससे कृषि कार्यों की लाभप्रदता बढ़ सकती है।

मृदा स्वास्थ्य एवं पैदावार में सुधार

ZBNF प्रथाएं मल्चिंग, कम्पोस्टिंग एवं इंटरक्रॉपिंग जैसी तकनीकों के माध्यम से मृदा की उर्वरता में सुधार लाने पर ध्यान केंद्रित करती हैं। ये विधियाँ मिट्टी की संरचना, जल-धारण क्षमता एवं पोषक तत्वों की विघमानता को बढ़ाती हैं, जिससे फसल की पैदावार में सुधार होता है। बढ़ी हुई उत्पादकता एवं लाभप्रदता पर सकारात्मक प्रभाव डाल सकती है। विशेष कर यदि किसान उन बाजारों तक पहुंच सकते हैं, जो जैविक पैदावार को पहचानते हैं और प्रीमियम का समय से भुगतान करते हैं।

ZBNF के अंतर्गत स्वास्थ्य जोखिम और इनपुट निर्भरता में कमी

रासायनिक कीटनाशकों एवं उर्वरकों को समाप्त करके, ZBNF कृषकों एवं उपभोक्ताओं के लिए उनके इस्तेमाल से जुड़े स्वास्थ्य जोखिमों को कम करता है। यह महंगे बाहरी इनपुट पर निर्भरता को भी काफी कम करता है, जिससे खेती का काम ज्यादा आत्मनिर्भर और मूल्य में उतार-चढ़ाव के प्रति सहज हो जाता है।

ZBNF के अंतर्गत जैविक उपज की बाजार मांग

भारत और विश्व स्तर पर जैविक एवं रसायन-मुक्त उत्पादों की मांग बढ़ती जा रही है। ZBNF इस बाजार प्रवृत्ति के साथ संरेखित होता है, जिससे किसानों को प्रीमियम बाजारों में प्रवेश करने और अपनी जैविक उपज के लिए उच्च मूल्य प्राप्त करने का अवसर प्राप्त होता है। हालाँकि, इन बाजारों तक पहुँचना एवं प्रभावी ढंग से स्थिरता कायम करना एक चुनौती हो सकती है, और लाभप्रदता सुनिश्चित करने के लिए बाजार संपर्क विकसित करने की जरूरत है।

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ZBNF के अंतर्गत ज्ञान और क्षमता निर्माण

ZBNF के सफल कार्यान्वयन के लिए किसानों को पर्याप्त ज्ञान और प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। आवश्यक प्रशिक्षण, तकनीकी सहायता और ज्ञान-साझाकरण मंच प्रदान करने के लिए क्षमता निर्माण कार्यक्रम, सरकारी सहायता और कृषि संस्थानों और गैर सरकारी संगठनों की भागीदारी महत्वपूर्ण है। ZBNF प्रथाओं में सूचना, अनुसंधान और नवाचारों तक पहुंच स्थिरता और लाभप्रदता को और बढ़ा सकती है।

भारत सरकार शून्य बजट प्राकृतिक खेती को इस तरह से प्रोत्साहन दे रही है

सरकार प्राकृतिक खेती समेत पारंपरिक स्वदेशी प्रथाओं को प्रोत्साहन देने के लिए परंपरागत कृषि विकास योजना (पीकेवीवाई) की एक उप-योजना के रूप में 2020-21 के दौरान चलाई गई भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति (बीपीकेपी) के जरिए प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहन दे रही है। यह योजना विशेष रूप से समस्त सिंथेटिक रासायनिक आदानों के बहिष्कार पर बल देती है। साथ ही, बायोमास मल्चिंग, गाय के गोबर-मूत्र फॉर्मूलेशन के इस्तेमाल और अन्य पौधे-आधारित तैयारियों पर विशेष जोर देकर खेत पर बायोमास रीसाइक्लिंग को प्रोत्साहन देती है। बीपीकेपी के अंतर्गत क्लस्टर निर्माण, क्षमता निर्माण एवं प्रशिक्षित कर्मियों द्वारा निरंतर सहायता, प्रमाणन एवं अवशेष विश्लेषण के लिए 3 सालों के लिए 12,200 रुपये प्रति हेक्टेयर की वित्तीय सहायता मुहैय्या कराई जाती है।

प्राकृतिक खेती के तहत 4.09 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल को कवर किया गया है

कृषि मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक, प्राकृतिक खेती के अंतर्गत 4.09 लाख हेक्टेयर रकबे को कवर किया गया है। आपकी जानकारी के लिए बतादें कि देश भर के 8 राज्यों को कुल 4,980.99 लाख रुपये का फंड जारी किया गया है। जबकि ZBNF में टिकाऊ और लाभदायक होने की क्षमता है, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि परिणाम स्थानीय कृषि-जलवायु स्थितियों, फसल चयन, बाजार की गतिशीलता, किसानों के कौशल और संसाधनों तक पहुंच जैसे अहम कारकों के आधार पर अलग हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त, ZBNF में परिवर्तन के लिए प्रारंभिक निवेश, मिट्टी के स्वास्थ्य की बहाली के लिए समय और किसानों के लिए सीखने की स्थिति की जरूरत हो सकती है। हालाँकि, उचित कार्यान्वयन, समर्थन एवं बाजार संबंधों के साथ, ZBNF भारत में एक टिकाऊ एवं लाभदायक कृषि मॉडल प्रस्तुत कर सकता है।